भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सदी के अन्त का गीत / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:00, 25 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जुट आई है भीड़ देखने
बरगद पीपल जड़ से उखड़े
ढहते काल-नदी के तीर ।
सिंगापुर की तस्वीरों में
जँचता खूब पलामू है
सदी बीसवीं से आजिज-सा
अाया अपना रामू है
मुग्ध गुजरिया लगी नाचने
दधि-माखन से भरे घड़े
परदेसों के जुटे अहीर ।
छोटी-सी इस दुनिया में
कितना ज़्यादा है अपनापन
शयन-कक्ष तक तारों से हैं
पहुँच रहे अब आमन्त्रण
गली-गली में बिकते सपने
हीरे-मोती-लाल जड़े
चमकी ‘गुलकी’ की तकदीर ।
चैराहों पर बिके सूचना
लौकी, कद्दू, सीताफल-सी
पड़ी टोकरी मूल्यों की पर
सड़े-गले बासी कटहल-सी
अपने-अपने 'शून्य' बेचने
बाज़ारों में सब निकल पड़े
सूरा, तुलसी और कबीर ।