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मजबूरियों के हाथों अरमान बेचते हैं / रविकांत अनमोल

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मजबूरियों के हाथों अरमान बेचते हैं
क्या कुछ तेरे जहां में इंसान बेचते हैं

चिह्‌रे हसीन जिनको तूने दिए हैं मौला
वो मुस्कुरा के अपनी मुस्कान बेचते हैं

ऊँची से ऊँची क़ीमत देते हैं इसकी मुफ़लिस
धन को बना के सपना धनवान बेचते हैं

व्योपार कर रहे हैं दुनिया के लोग सारे
हर फ़ाइदे के बदले नुक़्सान बेचते हैं

दो रोटियों के बदले सपनों की सारी दौलत
सस्ते में आजकल हर सामान बेचते हैं

हैरत न हो तो क्या हो, हर पाँच साल में वो
वोटों के बदले झूटे ऐलान बेचते हैं

इक मौत बेचते हैं वो अम्न में छुपा के
हम ज़िंदग़ी को कह के तूफ़ान बेचते हैं

वक़्ती ख़ुशी के बदले, दीनो-धरम के ताजिर
गीता को बेचते हैं, कुरआन बेचते हैं

अब क्या कहें कि जिन पर हम को बहुत यक़ीं था
बाज़ार में वो अपना ईमान बेचते हैं