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बँटे हुए घर की तस्वीर / रजत कृष्ण

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इस साझे घर की दीवारें
हिलने-डुलने लगीं हैं अब
अक्सर टकरा उठते हैं आपस में
छोटे-बड़े बर्तन सभी
और बन्द हों जाते हैं
दरवाज़ें-खिडकियाँ
टकराहट शुरू होती है
और खाली तसले-सा काँपने लगता है
अस्सी वर्षीय बाबा का तन-बदन
अब रतियाँ सुनाई पडती हैं
देव खोली में सिसकियाँ
पुरखों यह कुटुम्ब जो जुड़ा रहा आपस में मया के तागे से
यह मेरी साँसों तन
राहट में गूँजता है
अन्तरनाद दादी का
जनम से साझेपन को जीता आया
एक कवि कई रातों के नींद का बोझ लिए
बँटे हुए घरों की बस्ती में भटक रहा है ।