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मैं धूप का टुकड़ा नहीं / रजत कृष्ण

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मैं धूप का टुकड़ा नहीं जो
आँगन में फुदककर लौट जाऊँगा
मैं तो धरती के प्राँगण में खुलकर खेलूँगा

चौकड़ी भरूँगा हिरनी सा वन-प्रान्तर में
नापूँगा पहाड़ों की दुर्गम चोटियाँ
अँधेरे को नाथकर चाँद से बातें करूँगा

मेरी रगों में सूर्य के जाए
अन्नदाता का ख़ून है
मेरी जड़ों में गर्माहट है
महानदी की कोख की

ग्रीष्म हो बारिश हो या सर्दी
देह की ठण्डी परतें तोड़
पसीना ओगराऊँगा

मैं धूप का टुकड़ा नहीं
जो आँगन में फुदककर लौट जाऊँगा ।