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आठ छोटी कविताएँ / केदारनाथ अग्रवाल
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1
लिपट गई जो धूल पाँव से
वह गोरी है इसी गाँव की
जिसे उठाया नहीं किसी ने
- इस कुठाँव से ।
- 2
- ऎसे जैसे किरन
- ओस के मोती छू ले
- तुम मुझको
- चितवन से छू लो
- मैं जीवित हो जाऊँ !
- ऎसे जैसे स्वप्न
- लजीला पलकें छू ले
- तुम मुझ को
- चुम्बन से छू लो
- मैं रसमय हो जाऊँ !
3
तुम भी कुछ हो
लेकिन जो हो,
वह कलियों में--
रूप-गन्ध की लगी गाँठ है
जिसे उजाला
धीरे-धीरे खोल रहा है ।
- 4
- चोल्ह
- दबाए है
- पंजों में
- मेरे दिल को
- हरी घास पर
- खुली हवा में
- जिसे धूप में
- मैंने रक्खा !
5
मैं बादल हूँ
आषाढ़ी जामुन के रंग का,
लेकिन तप कर
मैं बादल हो गया कनक का,
और तुम्हारा छत्र हो गया !
- 6
- धूप नहीं, यह
- बैठा है खरगोश पलंग पर
- उजला,
- रोऎँदार, मुलायम--
- इसको छू कर
- ज्ञान हो गया है जीने का
- फिर से मुझ को ।
7
यह जो
नाग दिये के नीचे
- चुप बैठा है,
इसने मुझ को
- काट लिया है
इस काटे का मन्त्र
- तुम्हारे चुम्बन में है,
तुम चुम्बन से
- मुझे जिला दो ।
- 8
- वह पठार जो जड़ बीहड़ था
- कटते-कटते ध्वस्त हो गया,
- धूल हो गया,
- सिंचते-सिंचते
- दूब हो गया,
- और दूब पर
- वन के मन के--
- रंग-रूप के, फूल खिल उठे,
- वन-फूलों से गंध-भरा
- संसार हो गया ।