भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाज़ार में खड़े होकर / यतीन्द्र मिश्र

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:05, 29 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतीन्द्र मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के खिलाफ़ देखो

उन चीज़ों के खिलाफ़
जिन्हें पाने के लिए आये हो इस तरफ़

ज़रूरतों की गठरी कन्धे से उतार देखो
कोने में खड़े होकर नकली चमक से सजा
तमाशा-ए-असबाब देखो

बाज़ार आए हो कुछ लेकर ही जाना है
सब कुछ पाने की हड़बड़ी के खिलाफ़ देखो

डण्डी मारने वाले का हिसाब और उधार देखो
चैन ख़रीद सको तो ख़रीद लो
बेबसी बेच पाओ तो बेच डालो

किसी की ख़ैर में न सही अपने लिये ही
लेकर हाथ में जलती एक मशाल देखो

कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के खिलाफ़ देखो.