भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोच रहा हूँ / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:49, 30 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोच रहा हूँ
लगता है जैसे साए में अपना ही
गला दबोच रहा हूँ ।

एक नदी
उठते सवाल-सी
कन्धों पर
है झुकी डाल-सी
अपने ही नाख़ूनों से अपनी ही
देह खरोंच रहा हूँ ।

दूर दरख़्तों का
छा जाना
अपने में कुआँ
हो जाना
मुँह पर घिरे अन्धेरे को
बन्दर-हाथों से नोच रहा हूँ ।