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एक टूटता हुआ घर / ज्ञानेन्द्रपति
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एक टूटते हुए घर की चीख़ें
दूर-दूर तक सुनी जाती हैं
कान दिए लोग सुनते हैं
चेहरे पर कोफ़्त लपेटे
नींद की गोलियाँ निगलने पर भी
वह टूटता हुआ घर
सारी-सारी रात जगता है
और बहुत मद्धिम आवाज़ में कराहता है
तब, नींद के नाम पर एक बधिरता फैली होगी ज़माने पर
बस वह कराह बस्ती के तमाम अधबने मकानों में
जज़्ब होती रहती है चुपचाप
सुबह के पोचारे से पहले तक