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शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो / फ़िराक़ गोरखपुरी

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शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो

बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो


ये सुकूत-ए-नाज़, ये दिल की रगों का टूटना

ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो


निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परीशां, दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म

सुबह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो


कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा

कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो


जिसकी फ़ुरक़त ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़

आज उसी ईसा नफ़स दमसाज़ की बातें करो