भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम चली जाओगी / साहिर लुधियानवी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:45, 31 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = साहिर लुधियानवी }} तुम चली जाओगी, परछाईयाँ रह जायेंगी<...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम चली जाओगी, परछाईयाँ रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाइयां रह जायेंगी

तुम तो इस झील के साहिल पे मिली हो
मुझ से जब भी देखूंगा यहीं मुझ को नज़र आओगी

याद मिटती है न मंज़र कोई मिट सकता है
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी

खुल के रह जायेगी झोंकों में बदन की खुश्बू
ज़ुल्फ़ का अक्स घटाओं में रहेगा सदियों

फूल चुपके से चुरा लेंगे लबों की सुर्खी
यह जवान हुस्न फ़िज़ाओं में रहेगा सदियों

इस धड़कती हुई शादाब-ओ-हसीं वादी में
यह न समझो कि ज़रा देर का किस्सा हो तुम

अब हमेशा के लिए मेरे मुकद्दर की तरह
इन नजारों के मुकद्दर का भी हिस्सा हो तुम

तुम चली जाओगी परछाईयाँ रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाईयां रह जायेंगी