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ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया / सुभाष वसिष्ठ
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लाएँ क्या गीतों में ढूँढ़कर नया ?
ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया !
चिकने-चुपड़े से कुछ शब्दों में
अँकुराए तिरस्कार बीज
सार्वभौम सत्य का बखान करें
जिन्हें नहीं झूठ की तमीज़
धुएँ की हवाओं में, कौन, कब जिया !
कहने को सतरंगी चादर है
पर, भीतर बहु पानीहीन
आसमान छू लेने को तत्पर
बिन देखे पाँव की ज़मीन
प्रतिभा के हक़ में क्या सिर्फ़ मर्सिया ?!!