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मुख़बिर हवाएँ / रमेश रंजक

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साँस छोड़ो
बहुत आहिस्ता
यहाँ मुखबिर हवाएँ डोलती हैं ।

डोलतीं जिस रूप में
जिस रंग में
पहचानना मुश्किल
           सुई में धागा
           पिरोतीं किस तरह
           यह जानना मुश्किल

हर किसी से
जोड़ मत रिश्ता
यहाँ मुखबिर हवाएँ डोलती हैं ।

पेड़-पर्वत कोठियों के
कान भरतीं,
जेब भरती हैं
           एक प्रतिशत
           गन्ध की आलोचना से
           ऐश करती हैं

बोल मत
दो लब्ज़ दानिश्ता
यहाँ मुखबिर हवाएँ डोलती हैं ।