भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक दिवालिए की रिपोर्ट / समीह अल कासिम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:27, 10 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समीह अल कासिम |अनुवादक=रामकृष्ण प...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज़ और अपना बिछौना बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ़ करना पड़े
या गोबर में से खाना ढूँढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और ख़ामोश
इन्सानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
आख़िर तक मैं लड़ूँगा

जाओ मेरी ज़मीन का
आख़िरी टुकड़ा भी चुरा लो
जेल की कोठरी में
मेरी जवानी झोंक दो
मेरी विरासत लूट लो
मेरी क़िताबें जला दो
मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ
जाओ मेरे गाँव की छतों पर
अपने आतंक का जाल फैला दो
इन्सानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूंगा
और मैं आख़िर तक लड़ूँगा

अगर तुम मेरी आँखों में
सारी मोमबत्तियाँ पिघला दो
अगर तुम मेरे होंठों के
हर बोसे को जमा दो
अगर तुम मेरे माहौल को
ग़ालियों से भर दो
या मेरे दुखों को दबा दो
मेरे साथ जालसाज़ी करो
मेरे बच्चों को चेहरे से हँसी उड़ा दो
और मेरी आंखों में अपमान की पीड़ा भर दो
इन्सानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
और मैं आख़िर तक लड़ूँगा
मैं लड़ूँगा

इन्सानियत के दुश्मन
बंजरग़ाहों पर सिग्नल उठा दिए गए हैं
वातावरण में संकेत ही संकेत हैं
मैं उन्हें हर जगह देख रहा हूँ
क्षितिज पर नौकाओं के पाल नज़र आ रहे हैं
वे आ रहे हैं
विरोध करते हुए
यूलिसिस की नौकाएँ लौट रही हैं
खोए हुए लोगों के समुद्र से
सूर्योदय हो रहा है
आदमी आगे बढ़ रहा है
और इसके लिए
मैं कसम खाता हूँ
मैं समझौता नहीं करूँगा
और मैं आख़िर तक लड़ूँगा
मैं लड़ूँगा ।