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कल न मिलूँगा वहाँ / महेश उपाध्याय
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मुझे तुम देख रहे हो जहाँ
कल न मिलूँगा वहाँ ।
पलछिन-छिनपल बन्धु
तुम्हारा पथ मैं छोड़ रहा हूँ
राजमार्ग को त्याग
नई पगडण्डी मोड़ रहा हूँ
राह कौन जाने आगे की
पहुँचूँगा मैं कहाँ ।
ठकुर सुहाती चाहें जो
सामन्तवाद उनकी थाती
लोक-चेतना ने सौंपी
हम को जनवादी पाती
रचने को इन्सान नया
जूझ रहे हैं जहाँ तहाँ ।