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भाषा की रोशनी / रमेश रंजक

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जब मैं छोटा था
पिताजी कहते थे —
’अन्धेरे में
रोशनी लेकर चला करो !’

जब मैं बड़ा हुआ
रीतिजालीन नायिकाओं को
आँचल की ओट में
दीप लिए चलते पढ़ा ।

जब कुछ और बड़ा हुआ
तो मैंने अपने भीतर
स्वयं एक
रोशनी को गढ़ा ।

अब, जब मैं
पचास का हो रहा हूँ
चाहता हूँ कि —
अपनी भाषा की रोशनी में
चलता रहूँ
और उस अन्धेरे को
दलता रहूँ
जो हमारे भीतर की रोशनी को
लगातार खाए जा रहा है ।