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सपने-1 / रमेश रंजक
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सपने !
जो रातों की नींद में
भूगोल रचते हैं
पात्रों को सुनते हैं
क्रियाओं को देखते हुए
अपनी हदों में
मछलियोम से तैरते हैं
आँखें खुलते ही
न जाने कहाँ बिला जाते हैं ?
न वहाँ भूगोल होता है
न कथा के पात्रों के घर
न खण्डहर, न व्यथा के स्वर
बस खुली आँखें लिए
होता है — अकेला आदमी ।
...यादों के बारीक़ रेशों के
गुच्छों को सुलझाता हुआ
छोर की तलाश में
ओर तक घूमता हुआ
व्यर्थ का अर्थ लगाता हुआ
उन सपनों का
जो रातों की नींद में
भूगोल रचते हैं ।