भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपने-1 / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:14, 23 सितम्बर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपने !
जो रातों की नींद में
भूगोल रचते हैं
पात्रों को सुनते हैं
क्रियाओं को देखते हुए
अपनी हदों में
मछलियों से तैरते हैं
आँखें खुलते ही
न जाने कहाँ बिला जाते हैं ?

न वहाँ भूगोल होता है
न कथा के पात्रों के घर
न खण्डहर, न व्यथा के स्वर
बस खुली आँखें लिए
होता है — अकेला आदमी ।

...यादों के बारीक़ रेशों के
गुच्छों को सुलझाता हुआ
छोर की तलाश में
ओर तक घूमता हुआ
व्यर्थ का अर्थ लगाता हुआ
उन सपनों का
जो रातों की नींद में
भूगोल रचते हैं ।