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कउआ / कुमार मुकुल

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रोटी का एक तिरपटांग टुकडा मुंह में लिए हुए अपनी क्षैतिज उडान उडा जा रहा है कउआ उसकी खुशी देख लगता है कि वह हितोपदेश या पंचतंत्र की कथाओं से निकलकर भागा जा रहा है कउए को शायद नहीं पता कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कितना खाद्य-अखाद्य बना डाला है संस्कृतियों के रंगीन टीलों को छोड गंगा की ओर मुंह किए कहां भागा जा रहा है कउआ क्या किसी बाल-गोपाल की चीख अब भी उसका पीछा कर रही है ?

1996