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किसी पल के इंतज़ार में / कुमार मुकुल

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विवेकानंद को नहीं देखा मैंने

पछाड खाते समुद्र को भी नहीं

हिमालय को देखा है

पर दूर से


पर नदियां देखी हैं मैंने

नदियों की सपनीली आंखें देखी हैं

उनमें देखें हैं सपने समंदर के

और कछारों में

अस्थि‍यां हिमालय की


क्या बादल एक दिन हिमालय को

डुबो नहीं देंगे समुद्र में

फिर नदियों के पास क्या काम रह जाएगा

निठल्ली, मर नहीं जाएंगी वे

फिर कैसे पछाड खाएगा समुद्र

वैसे विराट मृत समय में क्या करेंगे हम ।


गर्भ देखेंगे धरती का

शायद वहां हों ज्वालामुखी

किसी पल के इंतजार में ।


1993