भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उषा-स्तवन-5 / मदन वात्स्यायन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:50, 30 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन वात्स्यायन |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अरे रे, किरणों की कोसी ने अपने कगारे ढहा दिए हैं,
दूर तक सर्वत्र वेग से टूटता पानी उमड़ता-घुमड़ता चारों
ओर फैल रहा है ।
अन्त तक स्थिर बलता वह एक अकेला शुक्रतारा दीप
दो अंगुल, चार अंगुल, दस अंगुल, रोशनी में धीरे-धीरे
डूब जाता है ।