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उषा-स्तवन-3 / मदन वात्स्यायन

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मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है ।
वह अप्सरा है ; उस का कभी ब्याह नहीं हुआ,
उस के प्राण घर-द्वार की बलिष्ठ वल्गा से निर्बन्ध हैं ।
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है ।

सुबह के प्रकाश में वह अलबेली अरुणाभिसारिका
ख़ाली पैरों चुपके आ कर मेरी खिड़की में झाँकने लगी ।
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है ।

शत-शत सोतों में बह रहा था तकिए से उतर कर मेरी
                                  पत्नी के केशों का अन्धकार,
उस ने सीखचों में हाथ डाल कर उन केशों को ही पकड़ लिया !
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है ।

जब मेरी पत्नी की नींद उचटने लगी तो हरिणी-सी भाग भी खड़ी हुई ।
पुकार कर कहती गई, कल फिर आऊँगी । मैं ठहर पड़ा ।
मुझे पूरब की एक डायन से मुहब्बत है ।