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पहाड़ : छह कविताएँ / कुमार मुकुल

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 1

जीवन के विस्तारों में

अक्सर याद आते हैं पहाड

कि चाहे वे थकाते बहुत हैं

पर जल्द ही दे देते हैं कोई चोटी

जहां खडे हो

क्षण भर को

तटस्थ हो सकें हम

विस्तारों के चक्रवर्तीत्व से

2

उूदी हवा शरीर से लगती है

तो सिहरते हुए याद आते हैं पहाड

यादों का भी सानी नहीं

छूते ही बरोबर कर देती हैं ये विषमताओं को

अब इसमें क्या तुक कि धुआं छोडती रेल को देख

एक लडकी की याद आती है


यादों में पहाड का वजन

फूल से ज्यादा नहीं होता

ना ही फूलों से कम खूबसूरत लगते हैं पहाड

यादों में संभव होता है

कि हम चूम सकें पहाडों को

जैसे उन्हें चूमता है आकाश

3

नीचे उतर आया हूं पहाडों से

सोचता कि अभी चोटी पर था

योटी को देखता हूं तो लगता है

कि क्या सचमुच वहां था


उूपर शून्य में कोई कैसे लिखे

कोई नाम

पांव तले की चट्टान भी

नाम स्वीकारेगी क्या


तब तोडता चलूं पत्थर कुछ

टुकडे चमकदार याद में

पर क्या पत्थर पहाड होते हैं

4

मारे खुशी के हांप रहा हूं

चोटी चढी है पहाड की

अब उतरना है नीचे


आश्रय नहीं दे पातीं

तो बनती क्यों हैं चोटियां


वहां बादल है हवा है सूरज है

पर जडें क्यों नहीं हैं


होता है यहीं पत्थर हो जाएं

पर लगेंगे करोड बरस

5

पहाडों क्या तुम्हारे हाथ नहीं होते

इच्छाएं नहीं होतीं चोटी से ढकेलने की


बलाते हो दूर से सिर भी चढाते हो

फिर उतरने क्यों नहीं कहते


पछताते हम ही उतरते हैं

कि उतरे क्यों

उतारे जाने का डर तो नहीं


नहीं ऐसा नहीं करोगे

यही सोचते खुश उदास होते

हम उतर आते हैं पर उतर पाते हैं

6

हो तो पहाड

पर कैसी सफाई से

पैठ जाते हो स्मृतियों में हमारी

और भी गहरी काली हरी चट्टानें बनकर

और सोते गर्म ठंडे जल के


इतने हल्के हो जाते हो

कि लगाते हो दौड

भूल जाते हो

कि धुंध सी ये स्मृतियां हैं हमारी

हवाएं नहीं कि चीरे चले जाओ


खुद छलनी हो जाएंगी ये

पर अगोरेंगी तुम्हें

पर कैसे बेरहम हो

अकेला पाते ही

होने लगते हो सवार छाती पर।

1997