बड़ा कवि / अनुज कुमार
मैं किसी से क्या कहूँ,
आगाज़-अंजाम में कन्फ्यूज़ हूँ,
ताउम्र बना रहा यह पशोपेश,
जब भी होना था बगल किसी के, मैं होता था तटस्थ,
कि ज़रूरी है एक साहित्यिक का होना निष्पक्ष ।
मानो देख रहा हो क्रिकेट, और चाहे कि फ़तह पाए दोनों टीमें,
कि जब भी होना था सबसे अधिक मुखर
तालू से चिपका लेता था ज़बान,
तिस पर ढिठाई यह,
कि ठेलने पर भी शर्म-लिहाज़ सदर दरवाज़े से जाने को न कभी राज़ी थे, न अभी हैं ।
आज कुछ कहने-सुनने से पहले लिखना चाहता हूँ प्राक्कथन,
कबूलना चाहता हूँ सारे झूठ जो इधर-उधर झाड़ आया हूँ,
शुरू करना चाहता हूँ हस्तमैथुन के दिनों से
जब अकेला था और फक्कड़ भी,
कहीं भी जमा लेता था मण्डली, कहीं भी सो लेता था,
जमा देता था इसे दो हाथ, खा लेता था उससे दो लात,
जहाँ ग़लत होता था, उसे ग़लत कहता था,
सच्चे का मानता था लोहा,
चम्बल-नक्सल से जोड़े रखे थे तार ।
फिर बीबी हुई, जा के बाद बच्चे,
फिर क्षरित हुआ पुंसत्व,
शुरू हुई क़लम को चाकू की धार देने की मुहीम,
सम्वेदन से लबलब जिगरों को चीर देने का हुनर,
दलित को हवाई हक़ दिलवाए, ब्राह्मण को गरियाया, स्त्री को पलकों पर सजाया,
जिस किसी फलाने-ढिकाने पर लिखी जा सकती थी कविता, लिखी, और चेंप दी,
यूँ, कईयों ने साथ भी दिया, कईयों को डकार भी लिया ।
आज आप सभी से मुखातिब यह बड़ा कवि, इस मंच से,
चाहता नहीं कुछ झाड़ना,
सिवाय इसके कि तल्खी से झाड़ सके नाम के आगे लगा बड़ा,
कि वह तनको बड़ा नहीं, महज़ नामी कवि है ।
नाम का कवि है ।