अपराध-बोध / अमृता भारती
क्या तुझमें अपराध-बोध है ?
हाँ,
मुझमें अपराध-बोध है
आदमी की अर्ध-पशुता
या अर्ध-मानवता का —
उसे
वैसे ही भूख लगती है
वैसे ही सोता है वह
अन्धेरी खाई में —
उसे हर दूसरे से भय लगता है
और वैसे ही वह डूबे रहना चाहता है
रति-विलास की गन्ध में ।
क्या तुझमें अपराध-बोध है —
जबकि आदमी और पशु का
यह चतुष्कोण
यह चारदीवारी
तुझसे बहुत पीछे छूट गई है ?
हाँ, मुझमें अपराध-बोध है
अपने अन्दर आसीन
उस ’देवत्व’ के साथ
आसीन होने का —
जिसे देख
मैंने अपनी चादर को
आसमान की तरह फैलाया था
और उसे चन्द्रिमा में डूबोकर
अपनी निर्वसनता पर पहनना चाहा था —
पर यह अपराध-बोध —
मैं अभी तक नहीं फेंक पाई हूँ
स्मृति में सने
अपने पुराने वस्त्र —
चन्द्रिमा में डूबी अपनी चादर को
हाथ में लिए खड़ी हूँ
अपनी देवमूर्त्ति के सामने
नहीं डाल पाती
सिर पर वह ओढ़नी
जिसे मैंने
उसके आकाश के
सितारों से सजाया था ।