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कभी जुनूँ के कभी मांदगी के साथ चलें / कांतिमोहन 'सोज़'
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कभी जुनूँ के कभी मांदगी के साथ चलें I
कभी शरर के कभी तीरगी के साथ चलें II
हज़ार यार यही इन्तज़ार करते रहे,
किसी का साथ मिले तो किसी के साथ चलें I
गुरेज़ां हमसे मुअज़्ज़न भी है बरहमन भी
हमारी टेक रही आदमी के साथ चलें I
भला हुआ कि हमें बीच राह छोड़ गए,
जिन्हें ये ज़िद थी कि हम क्यूँ किसी के साथ चलें I
ग़रज़ कि सोज़ की जैसी भली-बुरी बीती
जतन ये करते रहे आदमी के साथ चलें II