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भीड़ का ही इक हिस्सा हूँ / रविकांत अनमोल

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भीड़ का ही इक हिस्सा हूँ
फिर भी कितना तन्हा हूँ

हँसना पड़ता है सब से
तन्हाई में रोता हूँ

साबित दिखता हूँ लेकिन
अंदर से मैं टूटा हूँ

चलता फिरता हूँ यूँ हीं
यूँ ही बैठा रहता हूँ

कभी कभी यूँ लगता है
जैसे छोटा बच्चा हूँ

फैल-फैल के सिमट गया
सिमट सिमट के फैला हूँ

कभी रात जैसा हूँ मैं
कभी-कभी सूरज सा हूँ

एक अधूरापन सा है
जाने किसका हिस्सा हूँ

क्या बदलूँ खु़द को अनमोल
जैसा भी हूँ अच्छा हूँ