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मुहब्बत नहीं / रविकांत अनमोल

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नहीं अब किसी से मुहब्बत नहीं
मुझे ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं
कोई रोज़ था जब तिरा साथ था
तिरे हाथ में जब मिरा हाथ था
तिरे वास्ते जीता मरता था मैं
ज़माने की परवा न करता था मैं
अजब सा मुहब्बत का एहसास था
तिरे प्यार पर कितना विश्वास था
मुझे ज़िन्दगी कितनी प्यारी थी तब
ख़ुदा जाने क्यूँ मुझको लगता है अब
कि अब ज़िन्दगी की ज़रूरत नहीं
मुझे अब किसी से मुहब्बत नहीं