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चाहती हूं तुम्‍हें देना / मनीषा पांडेय

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चाहती हूं तुम्‍हें देना
सुख का
सबसे गहरा चुंबन

संसार के
सबसे बीहड़ बियाबान में खिल उठा
एक बैंगनी फूल
प्रेम से काते गए
प्रेम के ऊन से बुना
एक सुनहरा मफलर
तुम्‍हारे गले के गिर्द लिपटा
जैसे मैं ही होऊं
तुम्‍हें चूमती हुई

चाहती हूं
बर्फ में धूप बनकर खिल जाऊं
तपन में बनकर बारिश
तुम्‍हारी समूची देह पर बरस पडूं
बालों से टपकूं
जमीन पर गिरकर धरती में समा जाऊं

जिंदगी के हर शोर के बीच
प्रकृति के आदिम राग की तरह
बजती रहूं तुम्‍हारे कानों में
मेरे होने का मतलब हो तुम्‍हारी आंखों में हँसी
शांत, गहरी

ऐसे रहूं तुम्‍हारे भीतर हमेशा
जैसे दरख्‍तों की जड़ों में नमी रहती है
शिराओं में रक्‍त सी बहती रहूं
रहूं भी और दिखूं भी नहीं