कामना / विमल राजस्थानी
सोचा वासव ने-क्यों न मूर्ति मैं भी अपनी बनवाऊँ
प्रस्तर-प्रतिमा में क्यों न स्वयम्, सशरीर-सदेह समाऊँ
कोंकण के कलाकार की सारी कला चराने वाली
हो ऐसी छवि ब्रह्मा को भी कर मत्त, रिझाने वाली
यदि स्वयम् विश्वकर्मा देखें तो पलकें नहीं गिरायें
नर तो नर सुर भी निरख-निरख कर जय जयकार मनायें
आझा हुई, सुनयना शिल्पी के निवास पर आयी
वासना की इच्छा, अतिशय चतुराई से बतलायी
मूर्तिकार के मप में तो वासव की छवि अंकित थी
उसकी मन-वीणा रह कर भी मौन-मूक झंकृत थी
बहुत बलवती इच्छा थी सानिध्य सुखद पाने ीि
पाले थ लालसा प्रेम-धन, खुलकर, बरसाने की
पर ऐसा सौभाग्य कहा था ठेले पड़े करों का
छू पायें छाया भी वासव की, मिल गया झरोखा
मन-मंदिर में उतर, अर्ध्य पाने को राह बहुत है
लगा-सुनयना की वाणी से झरा अहा! अमृत है
उसको लगा-भाग्य की रेखा सुलझी, खुली-खिली है
अनायास यह तभी स्वर्ग की दुर्लभ डगर मिली है
‘‘करबद्ध खड़ा है शिल्पकार वासवदता के आगे
वासव ने जिसको स्मरण किया, क्या भाग्य न उसके जागे
‘‘मेरा यह अति सौभाग्य, सुन्दरी ने स्मरण किया है
जो भुवन-मोहिनी नर, किन्नर, सुर सब की प्राण-प्रिया है‘‘
‘‘वासव ने मूर्तिकार के सम्मुख नयी योजना धर दी
रत्नों की अग्रिम मूल्य-राशि से स्वर्ण-थालियाँ भर दीं
़बोली- यह मूर्ति करूँगी मैं स्थापित यमुना-तट पर
जैसे भी हो, यह मूर्ति बनानी है सत्वर,अति सत्वर
जितनी भी कला सँजोये हो, यब तुम्हे लगानी होगी
क्या गृही क्या सिद्ध, हृदय में आग जलानी होगी
द्युति,निरख-निरख जिसकी देवो के हृदय कुलाँचें खायें
खंजन-कटाक्ष पर सिद्धां की सिद्धियाँहवा हो जायें
प्रति रोम-रोम से झरे सुधा अमरो की, रा प्लावन हो
लख सकल सृष्टि संचरण थमे, छवि ऐसी मन-भावन हो
थम जाय सूर्य का रथ जैसे ही किरण देह को चूमे
रातों में शशि तारों के सँग बादल में लुक-छिप झूमे
बिखरे प्रकाश ऐसा रति-पति रिपु का सिंहासन डोले
हर साँस-साँस मे वासव का नाम चराचर बोले‘‘
सुख-स्वप्न फलित हो गया, प्रेम की जुही-मालती झूमी
मन ह मन उसने वासव की प्रतिमा सहलायी, चूमी
वह देख रहा था मूर्ति बनी अपने हाथों वासव की
चख रहा बँूद पर बँूद प्रिया के मादक रूपासव की
सौभाग्य अलभ्य रहा था जाक कल तक, वह आज सुलभ है
धरती के सम्मुख स्वतः उपस्थित हुआ विभासित नभ है
सानिध्य भाग्य में नहीं एक पल का भी सुर-किन्नर को
वह आनायास हो गया सुलभ मुझ शिल्पी जैसे नर को
कुछ घड़ियों के लिये सही, मुख-चंद्र निहारूँगा मैं
पल रहा हृदय में प्रेम उसे भरपूर सँवारूँगा मैं
हो गया रोम-रोम पुलकित,डुबा आनंद-सुधा में
घृत घड़ो पड़ गया अनायास प्रेमाग्नि-यज्ञ-समिधा में
‘‘सुन्दरि ! तुमको निज मूर्ति हेतु कुछ देर बैठना होगा
अभिरूप-उदधि के तल तक नित ही मुझे पैठना होगा
मैं सर्वश्रेष्ठ प्रस्तर-प्रखंड कल यहाँ खडा़ कर दूँगा
छवि, इन्द्र-धनुष के सप्त रंग से प्रखर-मुखर कर दुँगा
जितनी भी मुझमें कला, निछावर कर दूँगा, सच मानो
कृति वह अपूर्व, अनमोल, अनोखी होगी, निश्चय जानो
री! नहीं चाहिए अयि सुन्दरि ! यह स्वर्ण रत्न की ढ़ेरी
हो गयी तुम्हारी सहज स्वीकुति से चिर अभिलाषा पूरी
हँू यद्यपि मैं परदशी, आया मथुरा नया-नया था
पर व्यथा-वेग इस जन-गण का रा! देखा नहीं गया था
वह कारण क्या था,नहीं जानता, नहीं चाहता जानूँ
यह बात हृदय से संबंधित है, कैसे मैं हठ ठानूँ
बस है परितोष यही कि स्वप्न हो गया हो सहज ही पूरा
आझा दो अब, मैं पूर्ण करूँ जा अपना कार्य अधूरा
कल होते ही अपराहन् कार्य में मुझको लगना होगा
तब तक अयि प्राण प्रिय! वियोग में मुझे सुलगना होगा