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तुझे बदनाम करने पर तुली है / मज़हर इमाम
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तुझे बदनाम करने पर तुली है
गली हर राह-रौ को टोकती है
मिरा क़िस्सा मगर तुझ से तही से
तिरी बातों में क्या शइस्तगी है
सुकूत-ए-दश्त बे-ख़्वाबी में पहरों
सदा-ए-बरबत-ए-शब गूँजती है
वही तक है खंडर की आख़िरी हद
जहाँ तक चाँदनी फैली हुई है
मिरी तख़्ईल के अफ़्सुर्दा लब पर
वो अपने होंट रख कर सो गई है