भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राका आई / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:41, 6 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=सबका अपना आकाश / त्रिलोचन }} राका आई श...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राका आई

शारदा उतर आई

स्मिति की ज्योत्सना छाई


चंद्रमा व्योम में मुसकाया

सागर में इधर ज्वार आया

तारे हैं इधर, उधर पर्वत

आँखों ने जैसे वर पाया

चंचल समीर ने चल चल कर

कुछ नई भावना बरसाई ।


चाँदनी खेलती है भू पर

तृण,तरू,सरि,सर,गृह-कलशों पर

यह रात अनोखी नई रात

जैसे दिख जाए सुन्दर स्वर

प्राणों के भीतर नई लहर

लहरों में नई थिरक आई


उठता है दूर कहीं से स्वर

वह लहर पकड़ती है अंतर

चेतना हो गई सावधान

चलते चलते मैं गया ठहर

सन्नाटे में भी मंद लहर

कानों में बस कर लहराई


खिल रहे फूल, हँसते उपवन

जीवन ही जीवन भरा भुवन

इस समय भवन की मधुर कान्ति

कर रही गंधवह की चुंबन

क्या हुआ कि सत्ता चुपके से

आई, सुषमा अनुपद आई


अनिवार्य निरंतर आवाहन

सुनता रहता हूँ कुछ निःस्वन

द्यावापृथिवी के कण कण का

अग जग का प्रेरक संजीवन

ममता-बंधन यह वशीकरण

बंधन में मुक्ति सहज आई

(रचना-काल - 20-10-48)