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स्निग्ध श्याम घन की छाया है / त्रिलोचन

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स्निग्ध श्याम घन की छाया है ग्रीष्म-पन्थ पर याद तुम्हारी


वृक्षहीन यह निर्जन यात्रॉ

भूमि मूक उत्ताप भरी है

मन के मौन मनन की मात्रा

तुल कर छन्दों में उतरी है

किन चरणों पर क्षितिज झुका है

किस के लिए सिद्धि ठहरी है

आज देखना है, चलना, प्राण ताप के है आभारी


घोर घाम है, हवा रुकी है

सिर पर आ कर सूर्य खड़ा है

सिमट पैर पर छाँह झुकी है

भला दैव से कौन लड़ा है

लेकिन चरण रहेंगे बढ़ते

बढ़ने का उत्साह बड़ा है

प्राणों में रस घोल रही है दूरागता काकली प्यारी


पंचम स्वर यों ही लहराए

फिर क्या ताप और बढ़ जाए


प्रलयकाल के लिए बचाए

हुए तेज चंडाशु दिखाए

दो पैरों से ही अनंत पथ

दो साँसों का स्वर बन जाए

एक यही अभिलाष हृदय में ओ इस जीवन की अधिकारी


(रचना-काल - 16-08-49)