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मैंने भूलों पर भूले की / त्रिलोचन
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मैं ने भूलों की भूलों से तुम को बॉँध लिया
जीवन की सीधी राह नहीं
दुर्गम पर्वत है, सागर है
मिलती है उस की थाह नहीं
मैं न जीवन के जलनिधि को अपनी लहरों से साध लिया
पंक ही पंक था मानस में
होता भी क्या अपने बस में
जो कुछ भी था सब था रस में
लहरों से सरसिज जगा किये मैंने आनन्द अगाध लिया
साँसों का आना जाना क्या
ये फूल खिले है खिलना था
अनजाना क्या पहचाना क्या
वह ज्योति तुम्हारी थी जिस से मैं ने तुमको आराध लिया
वे भूलें भी है आज भली
जिन से जीवन की ज्योति जली
जिन की चर्चा है गली गली
सब ने सुरधनुषी वर्षा का आनन्द अखण्ड अबाध लिया
(रचना-काल - 30-11-49)