वे / विजेन्द्र
वे रोज़ इसी समय लामनी से लौटते हैं
साँझ के झुटपुटे में
कमर कसे
सिर पर भरौंटा का बोझ
साधे हुए
दिन भर तेज़ धूप में
फसल काटते हैं
दिनभर लू को
सीने पर झलते हैं
मैं देखता हूँ उसी क्षण
तुम्हारे चेहरे पर
थकान के बने आँक
सूखी लटें बिखरी पीठ पर
नरम-नरम दूब के पोए
सत्यानाशी के पीले फूल
खिली धूप से
रस चूसते हेँ
लड़ो ने सदा बचाया है
पत्तियों, टहनियों और तने को
जैसे रोएँ करते हैं हिफाज़त
खाल की
इसी समय
इसी ठौर से
वे जाते हैं मुड़कर
लपकते-लपकते अपने घरों को
उनके तँवई चेहरे
धूप के दाग खुले कन्धों पर
पहचान में नहीं आते
साँस और गहरा गई है
सूर्य-
खण्डहर चर्च के पिछे
जा छिपा है
आदमी औरतें बच्चे
सिर्फ जाते हुए दिखते हैं
धुँधलके में
छायाएँ काँपती हैं
जीवन भार से
थोड़ी दूर जाकर
वे गुम होते हुए लगते हैं
ओ हवा
तू चल मन्द मन्द
जिससे मैं सुन सकूँ
फसलों की सरसराहट
नबी बालियों के अन्दर
अन्न का पकना।
2007