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कहते वे / विजेन्द्र

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लू चल रही है
खलियानो में लाँक पड़ा है
खेतो में रह गई जौ-गेहूँ की
रजत ठूठियाँ
जहाँ-तहाँ फूटी हैं दूब लजीली
कहीं-कहीं हेकड़ पीत भटकटैया
बकरी चरती है गायें चरती हैं
चरती है भेंड़ें-भैंसे
नहीं यहाँ चंदन चौबारे
नहीं यहाँ नयन रतनारे
श्रमोंत्कंठित आँखे देखी हैं
धूप में पड़ते कारे
नहीं दीनता, ना लाचारी
नाहीं थक कर हारे
धमाचौकड़ी बच्चे करते
दाँताकिलकिल नंगे
नहीं अरघान कुटज चमेली
नहीं मौंगरा फूला
लिख-लिख कागद गाथा गाई
कविता रही अकेली
देखे भीतर भोजन करते
बाहर देखें भूखे मरते
देखा मानुख जूझ रहा है
वे कहते-करनी अपनी भोग रहा है।

2007