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नईंयाँ ग़ज़ल अकेली मोरी / महेश कटारे सुगम
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नईंयाँ ग़ज़ल अकेली मोरी
गुइंयाँ सबकी मोरी तोरी
ठांढी तुमें उतै मिल जैहै
जितै कितऊँ होवै बरजोरी
देखत है अन्याय कितऊँ तौ
करन लगत सीधी मौजोरी
मोंगी नईं रत बोल परत है
अगर कोउ की घींच मरोरी
प्रेम भाव सबखौं बाँटत है
बान्धत है सबखौं इक डोरी
चौकस राखत नज़र हमेशा
बनी रेत है भोरी भोरी
छानत खाक गैल घाटन की
दुनियाँ पूरी सुगम बहोरी