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बाल काण्ड / भाग 10 / रामचंद्रिका / केशवदास

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पद्धटिका छंद

तुम अमल अनंत अनादि देव।
नहिं वेद बखानत सकल भेव।।
सबको समान नहिं वैर नेह।
सब भक्तन कारन धरत देह।।218।।
अब आपनपौ पहिचानि विप्र।
सब करहु आगिलौ काज छिप्र।।
तब नारायन को धनुख जानि।
भृगुनाथ दियो रघुनाथ पानि।।219।।

मोटनक छंद

नारायन कौ धनुबान लियो।
ऐंच्यो हँसि देवन मोद कियो।।
रघुनाथ कहेउ अब काहि हनों।
त्रैलोक्य कँप्यो भय मान घनो।।220।।
दिग्देव दहे बहु बात बहे।
भूकंप भये गिरिराज ढहे।।
आकास विमान अमान छये।
हा हा सबही यह शब्द रये।।221।।

शशिवदना छंद

परशुराम- जग गुरु जान्यो। त्रिभुवन मान्यो।।
मम गति मारौ। हृदय विचारौ।।222।।
(दोहा) विषयी की ज्यों पुष्पशर, गति को हनत अनंग।
रामदेव त्यौंही कियो, परशुराम गति भंग।।223।।

चतुष्पदी छंद

सुर पुर गति भानी सासन मानी भृगुपति को सुख भारो।
आशिष रसभीने सब सुख दीने अब दसकंठहि मारो।।224।।
(दोहा) सोवत सीतानाथ (विष्णु) के, भृगुमुनि दीन्हों लात।
भृगुकुलपति की गति हरी, मनो सुमिरि वह बात।।225।।

सवैया

ताड़का तारि सुबाहु सँहारि कै गौतम नारि के पातक टारे।
चाप हत्यो हर को हँसि कै तब देव अदेव हुते सब हारे।।
सीतहि ब्याहि अभीत चल्यौ गिरि गर्व चढ़े भृगुनंद उतारे।
श्रीगरुड़ध्वज को धनु लै रघुनंदन औधपुरी पगुधारे।।226।।

अयोध्या आगमन

सुमुखी छंद

सब नगरी बहु सोभ रये। जहँ तहँ मंगल चार ठाये।।
बरनत हैं कविराज बने। तन मन बुद्धि विवेक सने।।227।।

मोटनक छंद

ऊँची बहु वर्ण पताक लसैं। मानो पुर दीपति सो दरसैं।
देवीगण व्योम विमान लसैं। शोभैं तिनके मुख अचल सैं।।228।।

तामरस छंद

घर घर घंटन के रव बाजै। बिच बिच संख जु झालरि साजैं।।
पटह पखाउज आवझ (ताशा) सोहै। मिलि सहनाइन सों मन माहैं।।229।।

हीरक छंद

सुंदरि सब सुंदर प्रति मदिर पर यों बनी।
मोहन गिरि शृंगन पर मानहुँ महि मोहनी।
भूषनगन भूषित तन भूरि चितन चोरहीं।
देखति जनु रेखति तनु बान नयन कोरहां।।230।।

सुंदरी छंद

शंकर शैल चढ़ी मन मोहति।
सिद्धन की तनया जनु सोहति।।
पùन ऊपर पùिनि मानहुँ।
रूपन ऊपर दीपति जानहुँ।।231।।

विशेषक छंद

एक लिए कर दर्पण चदन चित्र करे।
मोहति है मन मानहुँ चाँदनि चर धरे।।
नैन विशालनि अंबर लालनि ज्योति जगा।
मानहुँ रागिनि राजति है अनुराग रँगी।।232।।
नील निलोचन की पहिरे यक चित्त हरे।
मेघन की द्युति मानहुँ दामिनि देह धरे।
एकन के तन सूच्छम सारि जराय जरी।
सूर-करावलि सी जनु पùिनी देह धरी।।233।।

तोटक छंद

बरखै कुसुमावलि एक घनी।
शुभ शोभन कोमलता सी बनी।।
बरखै फल फूलन लायक (लाजक; लावा धान की खील) की।
जनु हैं तरुनी रतिनायक की।।234।।
(दोहा) मीर भये गज पर चढ़े, श्रीरघुनाथ विचारि।
तिनहिं देखि बरनत सबै; नगर नागरी नारि।।235।।

ताटक छंद

तमपुंज लियौ गहि भानु मनौ।
गिरि-अंजन ऊपर सोम मनौ।।
मनमत्थ विराजत सोभ तरे (शृंगार के नीचे, पाठांतर, जनु राजस काम सिगार तरे।)।
जनु भासत लोभहिं दान करे।।236।।

मरहट्टा छंद

आनंद प्रकासी सब पुरवासी करत ते दौरा दौरी।
आरती उतारैं सरवत वारैं अपनी अपनी पौरी।।
पढ़िमंत्र अशेषनि करि अभिषेकेनि आशिष के सविशेषै।
कुंकुम कर्पूरनि मृगमद-चूरनि वर्षति वर्षा वैषै।।237।।

आमीर छंद

यहि विधि श्रीरघुनाथ। गए भरत को हाथ।।
पूजत लोग अपार। गये राजदरबार।।238।।
गये एकही बार। चारों राजकुमार।।
सहित वधूनि सनेह। कौशल्या के गेह।।239।।

त्रिभंगी छंद

बाजे बहु बाजैं तारनि साजैं सुनि सुर लाजैं दुख भाजैं।
नाचैं नव नारी सुमन सिंगारी गति मनुहारी सुख साजैं।।
बीनानि बजावैं गीतनि गावैं मुनिन रिझावैं मन भावैं।
भूखन पट दीजै सब रस भीजै देखत जीजै छबि छावैं।।240।।
(सोरठा) रघुपति पूरण चंद, देखि देखि सब सुख मढ़ैं।
दिन दने आनंद, ता दिन तै तेहि पुर बढ़ैं।।241।।

(इति बालकांड)