बाल काण्ड / भाग 9 / रामचंद्रिका / केशवदास
विजय छंद
परशुराम- केसव हैहयराज को मांस
हलाहल कौरन खाइ लियो रे।
तालगि भेद महीपन को
घृत घोरि दियौ न सिरानो हियो रे।
खीर (क्षीर, दूध) खडानन कौ मद केसव
सो पल मैं करि पान लियो रे।
तौ लौं नहीं सुख जौ लहुँ तू
रघुबंस को सोन-सुधा न पियो रे।।194।।
तंत्री छंद
भरत- बोलत कैसे भृगुपति सुनिए
सो कहिए तन मन बनि आवौ।
आदि बड़े हौ बड़पन राखौ
जाते तुम सब जग यश पावौ।।
चंदनहूँ में अति तन घसिए
आगि उठै यह गुनि सब लीजै।
हैहय मारे, नृपति सँहारे
सो जस लै किन जुग जुग जीजै।।195।।
नाराच छंद
परशुराम- भली कहीं भरत्थ तैं उठाय अंग अंग तैं।
चढ़ाउ चोपि चाप आप बाध ले निखंग तैं।।
प्रभाउ आपनो देखाउ छोड़ि बाल भाइ कै।
रिझाठ राजपुत्र मोहिं राम कै छुड़ाई कै।।196।।
(सोरठा) लियो चाप जब हाथ, तीनिहु भैयन रोस करि।
बरज्यौ श्री रघुनाथ, तुम बालक जानत कहा?।।197।।
भगवंतन सों जीतिए, कबहुँ न कीने शक्ति।
जीतिय एकै बात तें, केवल कीने भक्ति।।198।।
हरिगीत छंद
जब हयो हैहयराज इन बिन छत्र छितिमंडल करîो।
गिरि बेधि (महादेवजी से शस्त्र विद्या सीखकर जब परशुराम कैलास से नीचे उतरे तो अपनी बाणविद्या की परीक्षा के उद्देश्य से हिमालय की एक शाखा पर बाण मारे, जिससे पहाड़ फटकर घाटी बन गयी। इसी घाटी को कालिदास ने क्रौंचरंध्र कहा है- हंसद्वारं भृगृपतियशोवर्त्म यत्क्रौंचरंध्रम् मेघदूत, पृ. 57 कहते हैं हंस इसी रास्ते से आते जाते हैं)। खटमुख (षणमुख, स्वामी कार्तिकेय। तारकासुर जब बहुत प्रबल हुआ तो देवताओं ने महादेव की स्तुति की उन्हीं के वीर्य से उत्पन्न व्यक्ति के हाथ से तारकासुर मारा जा सकता था। महादेवजी ने प्रसन्न होकर अग्नि को अपना तेज प्रदान किया। अग्नि ने उसे न सह सकने के कारण, गंगा में डाल दिया। वहाँ कुमार कार्तिकेय का जन्म हुआ। उनके छह मुख थे। जिनसे वे छह कृत्तिकाओं का दूध एक साथ पीते थे। शस्त्राभ्यास के समय इनकी परशुराम से होड़ हो गई जिसमें परशुराम ने इन्हें नीचा दिखलाया) जीत, तारक-नंद (कहते हैं, तारकासुर का पुत्र अपने पिता का बदला लेने के लिये उठा तो परशुराम ही से उसका वध हो सका।)की जब ज्यौ हरîौ।।
सुत मैं न जायो राम सो यह कह्यो पर्वतनंदिनी।
‘वह रेणुका तिय धन्य धरणी में भयी जगवंदिनी’।।199।।
तोमर छंद
परशुराम- सुनु राम सील-समुद्र। तव बंधु हैं अति छुद्र।
मम वाडवानल कोप। अँगु कियो चाहत लोप।।200।।
दोधक छंद
शत्रुघ्न- हौ भृगुनंद बली जग माहीं।
राम बिदा करिए घर जाहीं।
हौं तुमसौं फिरि युद्धहि माँड़ौं।
छत्रिय वंश को वैर लै छाँड़ौं।।201।।
तोटक छंद
यह बात सुनी भृगुनाथ जबै।
कहि, ‘रामहि लै घर जाहु अबै।।
इन पै जग जीवत को बचिहौं।
रन हौं तुमसौं फिरिकै रचिहौं।।202।।
(दोहा) ‘निज अपराधी क्यों हतौं, गुरु अपराधी छाँड़ि।
ताते कठिन कुठार अब, रामहिं सों रन माँड़ि।।203।।
विजय छंद
‘भूतल के सब भूपन को मद
भोजन तो बहु भाँति कियोई।
मोद सों तारक नंद को मेद
पछ्यावरि (शिखरन) पान सिरायो हियोई।
खीर खडावन को मद केसव
सो पल में करि पान लियोई।
राम तिहारेइ कंठ को सोनित
पान को चाहै कुठार कियोई’।।204।।
त्रोटक छंद
लक्ष्मण- जिनकोहि अनुग्रह वृद्धि करे।
तिनको किमि निग्रह (दंड) चित्त परै।
जिनको जग अच्छत सीस धरै।
तिनको तन सच्छत कौन करै।।205।।
विशेषक छंद
परशुराम- हाथ धरे हथियार सबै तुम सोभत हौ।
मारनहारहिं देखि कहा मन छोभत हौ।
छत्रिय के कुल ह्वै मिमि बैनन दीन रचौ।
कोटि करो उपचार न कैसेहु मीचु बचौ।।206।।
लक्ष्मण- छत्रिय ह्वै गुरु लोगन के प्रतिपाल करैं।
भूलिहु तौ तिनके गुन औगुन जी न धरै।
तौ हमको गुरुदोस नहीं अब एक रती।
जो अपनी जननी तुमहीं सुख पाइ हती।।207।।
परशुराम- लक्ष्मण के पुरिखान कियो
पुरुसारथ सो न कह्यौ परई।
बेस बनाइ कियौ बनितान को
देखत केसव ह्यौ हरई।
कूर कुठार निहारि तजै फल
ताकौ यहै जो हियो जरई।
आजु तैं केवल तोको महाधिक,
छत्रिन पै जौ दया करई।।208।।
गीतिका छंद
तब एकविंसति बेर मैं बिन छत्र की पृथिवी रची।
बहु कुंड सोनित सौं भरे पितु तर्पनादि क्रिया सची।।
उवरे जे छत्रिय छुद्र भूतल, सोधि सोधि सँहारिहौं।
अब बाल बृद्ध न ज्वान छाँड़हुँ धर्म निर्दय पारिहौ।।209।।
राम- (दोहा) भृगुकुल-कमल दिनेस सुनि, ज्योति सकल संसार।
क्यों चलिहै इन सिसुन पै, डरत हौ जसभार।।210।।
परशुराम- (सोरठा) राम सुबंधु सँभारि, छोड़त हौं सर प्रानहर।
देहु हथ्यारन डारि हाथ समेतिनि बेगि दै (शीघ्रता से)।।211।।
पद्धटिका छंद
राम- सुनि सकल लोक गुरु जामदग्नि।
तप विशिख असेसन की जो अग्नि।।
सब विशिख छाँड़ि सहिहौं अखंड।
हर-धनुख करौ जिन खंड खंड।।212।।
सवैया
परशुराम-बान हमारेन के तनत्रान विचारि विचारि विरंचि करे है।
गोकुल ब्राह्मन नारि नपुंसक जे जग दीन सुभाव भरे हैं।।
राम कहा करिहौ तिनको तुम बालक देव अदेव धरे हैं।
गाधि के नंद तिहारे गुरू जिनते ऋषि वेख किये उबरे हैं।।213।।
षट्पद
राम- भगन भयो हर-धनुख साल तुमको अब सालै।
वृथा होइ विधि-सृष्टि ईस आसन ते चालै।।
सकल लोक संहरहु सेस सिर ते धर डारैं।
तप्त सिंधु मिलि जाहिं होहिं सबहीं तम भारैं।।
अति अमल ज्योति नारायणी कहि केसव बुड़ि जाहि बरु।
भृगुनंद सँभारु कुठार मैं कियो सरासन युक्त शरु।।214।।
स्वागता छंद
राम राम जब कोप करî जू।
लोक लोक भय भूरि भर जू।।
वामदेव (महादेव) तब आपुन आये।
रामदेव दोऊ समुझाये।।215।।
(दोहा) महादेव को देखि कै; दोऊ राम विसेस।
कीन्हों परम प्रनाम उन, आसिस दियो असेस।।216।।
महादेव- भृगुनंदन सुनिए मन मँह गुनिए रघुनंदन निर्दोषी।
निजु (निश्चय) ये अविकारी सब सुखकारी सबही विधि संतोषी।
एकै तुम दोऊ और न कोऊ एकै नाम कहायौ।
आयुर्बल खट्यौ धनुषजो टूट्यौ मैं तन मन सुख पायौ।।217।।