भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वटगमनी / रामइक़बाल सिंह ’राकेश’
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:40, 15 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामइक़बाल सिंह 'राकेश' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जनमल लौंग दुपत भेल सजनि गे
फर फूल लुबधल जाय
साजी भरि-भरि लोढ़ल सजनि गे
सेजहीं दे छिरिआय
फुलुक गमक पहुँ जागल सजनि गे
छाड़ि चलल परदेश
बारह बरिस पर आयल सजनि गे
ककवा लय सन्देश
ताहीं सें लट झारल सजनि गे
रचि-रचि कयल शृंगार
हे सखी, लौंग के बीज अंकुरित हुए, और उसमें दो पत्ते उग आए ।
काल पाकर वह फल-फूल से लद गया ।
तब मैंने डाली भर-भर कर उसके फूल इकट्ठे किए और फिर उन्हें प्रियतम की सेज पर बिखेर दिया ।
उन फूलों की गन्ध से मेरे प्रियतम की नींद टूट गई, और वह मुझे छोड़कर परदेश चले गए ।
हे सखी, वह पुनः बारह वर्ष बाद वापिस आए, और मेरे लिए अपने साथ कंघी उपहार में लाए ।
मैंने उसी से अपने उलझे हुए बालों को सँवारा, और रच-रच कर शृंगार किया ।