भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे / ‘अना’ क़ासमी

Kavita Kosh से
वीरेन्द्र खरे अकेला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:21, 21 जनवरी 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे
दौर अच्छा नहीं बेहतर है कि वो घर में रहे

जब तराशे गये तब उनकी हक़ीक़त उभरी
वरना कुछ रूप तो सदियों किसी पत्थर में रहे

दूरियाँ ऐसी कि दुनिया ने न देखीं न सुनीं
वो भी उससे जो मिरे घर के बराबर में रहे

वो ग़ज़ल है तो उसे छूने की ह़ाजत भी नहीं
इतना काफ़ी है मिरे शेर के पैकर में रहे

तेरे लिक्खे हुए ख़त भेज रहा हूँ तुझको
यूँ ही बेकार में क्यों दर्द तिरे सर में रहे

ज़िन्दगी इतना अगर दे तो ये काफ़ी है ’अना’
सर से चादर न हटे पाँव भी चादर में रहे

शब्दार्थ
<references/>