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मेरे पूर्वज / समीर बरन नन्दी

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कर्णफुली नदी में ....
कभी-कभी लकड़ी बह कर आ जाती थी
जबकि कहीं भी जंगल नहीं था हमारे गाँव के आस-पास .

उससे ही बूढ़ा मिस्त्री बनाया करता था
हमारे पितामह, प्रपितामह का घर, दरवाज़ा, खिड़की ।

आजकल बह कर आई लकड़ियों से बना रहा है नाव ।

(बिल्ली के छौनों को उसी पर रख कर छोड़ आने की बात कर रहे है लोग।)

सबसे लम्बे और मोटे तने को प्रणाम करके
मिस्त्री ने अलग रख दिया था ।

(बेकार की लकड़ियों से बने बैट और बॉल से मुझे खेलते हुए देख कर देवता नाराज हो गए थे ).

इस साल बेहद सर्दी पड़ी
बूढ़ा मिस्त्री उसी से मर गया ।

मौत के समय उसने देखा
जंगल में पेड़ रमण कर रहे है ।

फिर देखा घुमन्तु बिल्लियाँ उसकी नाव में विचरण कर रही हैं

और ...सबसे लम्बी लकड़ी जो अलग रखी थी --
उसे जलाकर पिता, पितामह, प्रपितामह
मेरा इन्तज़ार करते हुए ..आग ताप रहे है ।