भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कद ताईं / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:38, 28 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजू सारसर ‘राज’ |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
थे सदा सुखी रेवौ सेठां
थांरी उमर होवै हजारी
दूधां न्हावौ, पूतां फलौ
लिछमी दासी रैवे थारी
आ आसीस निसरै
उण रै मुंडै सूं
जणा देवै सेेठ सुखियै नैं
रोटी रूखी बासी
उण री निजरां में सेठ सूं
बडौ दानी करण
कींकर हो सकै।
काळ तुरळावै/भीख मंगावै
भूख रो मारेड़ौ
छोड दीन्हो है गांव।
कुण बांचै विधाता रा लेख
सो कीं ढोय’र
लिख दियौ रोटी रो नांव।
लीलाड री रेख ढुड़गी
निरदयी काळ रै उळांथ सूं।
नैणां रा समंदर सूकग्या
काची काया होगी पाखाण
ईं उमर रा उडणां सुपना
बापड़ै सुखियै नै कींकर भावै
आधो भूखौ नींद में उरणावै
पसवाडौ फेरै/होठ हालै/जाणैं
बो तो नींद में ई रोटी खावै।
बाळपणैं री कुचमादां रूळगी
आस री बात्यां सुळगी
बो तो फगत, अैक बगत री सोचै,
जाणूं
आखी उमर पण,
कटैली कींकर।