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पूरब रो पूत / राजू सारसर ‘राज’

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पिछम सूं,
औसरै अंधारौ
देख ’र सून्याड़
मेलतो आवै
पग बोच-बोच ’र
बिना खुड़कौ करै।
लीला ज्यावै
धरती री सगळी
चै’ल-पै’ल।
तारिया कूटचिग्गी कढावै
नाच-नाच ’र
भाजै ईं खूणै सूं
उण खूंणै तांई
अचपळा
कुचमादी टाबरां ज्यूं।
आभै रै मारग
उडता जावै रैणचर
हथायां करता।
स्याणी लुगायां,
नैनां टाबरियां नैं
मांवड्यांजी रै पालणा सूूं
बचावण खातर
लकोवै ओढणियै रै पल्लै सूं
चालै पण ओ खेल
कद तांई
जद पूरब री कूख फाटै
सगळा भाज छूटै
कुलच्छाणा जोवै बा’ण
गादड पड़तां गिरजड़ां ज्यूं
पैदा होंवतां ईं
पूरब रो पूत सूरज।