भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भिक्षुक दुख / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:20, 28 फ़रवरी 2008 का अवतरण
मैंने सोख लिए हैं
और पिए हैं
बेला औ' चम्पा गुलाब के
डब-डब आँसू,
मौलसिरी के
छल-छल आँसू,
जैसे सूरज पी लेता है
हरी घास के लक-दक आँसू !
मेरा दुख
भिक्षुक है मेरा ;
वह जो लेता है
देता हूँ ;
जाता है जब
तब मैं उससे
आने का
वादा लेता हूँ