भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फरक थारै अर म्हारै बिचाळै / वासु आचार्य

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:07, 15 फ़रवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वासु आचार्य |संग्रह= }}‎ {{KKCatKavita‎}} <Poem>स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुख अर दुख
आप आपरो हुवै
म्हारो दुख
तनै अकैकारो लाग सकै
अर म्हारै सुख माथै
तूं दांत काढ सकै

तनै जंगळ में
खेजड़ी माथै बैठी
एकल एकली चिड़कली
कोई खास बात नीं लखावै
पण म्हारै काळजै
गैरी उदासी भर जावै
तिरण लागै-
म्हारी आंख्यां में
कच्चा टापरा
उदास झूंपड़ियां
जठै लगोलग
नीं तो लालटेन सूं
कोई धुंवो उठै
अर नीं ही ससोयां सूं
ईं में म्हारो
कीं दोस नीं है
म्हारा भायला
कै थनै खुलै आभै में
झपटता केई बाज
अर बचणां चावता
केई कबूतरां रै
जीवण अर मरण रै
खूनी खेल में
बाज रो झपटणो
घणो सुहावै

अर म्हैं डरूफरू हुयै
कबूतर री पीड़ा सूं
सूकण लागूं मांय रो मांय

म्हैं जठै खड़ियो हूं
बठै री जमीन रो
आपरो न्यारो सोच है
अर न्यारी निजर

म्हैं कैयो नीं
सुख अर दुख
आप आपरो हुवै।