भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिनावर / संजय आचार्य वरुण

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:35, 25 फ़रवरी 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्हारै हाथां री ताकत
भेळी हुय
जाय बसी
म्हारै माथै में
अर उछाळा मारै
घड़ी घड़ी, छिण छिण
बठीठा आवै
दिमाग री नाड्यां ने
आपरी ताकत
अजमावण सारू।

म्हारी सोच रै
आसै पासै
घेरा घाळै
केई काळा माच्छर
कानां री फरी काढती
माख्यां री
भणभणाट ने
अणसुणौ करणौ चावूं
पण कर नीं पावूं।

म्हारी दिमागी ताकत में
लपटीजियोड़ा
केई ऊंदरा
म्हारै आदरसां
म्हारै असूलां
म्हारी सभ्यता
म्हारी संस्कृति
अर म्हारै मिनखापणै री
इमारतां री नीवां ने
आपरै तीखै पंजां सूं
कर देवै पोलीफस
खोखली
अर कदे, जद
पड़ जावै
बै इमारतां
भरभराय
उण बखत, म्हैं मिनख
बण जावूं हूँ
मिनख दांई
दीखण आळौ
एक जिनावर।