भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुद नै देखणौ / संजय आचार्य वरुण
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:35, 25 फ़रवरी 2015 का अवतरण
अबै आंख्यां ने
देखण खातर
दरकार नीं है
किणी चीज वास्त री।
जद भी उण ने
कीं मन भावणौ
नीं दीखसी तो
बा जाणें है
के उण रै आप रै मांय भी तो
वस्योड़ी है एक दुनिया
उण रौ आप रौ संसार।
वा उण ने ही’ज देखैला
बा जाणै के
रूं रूं खड़ौ कर देवण आळौ हुवै
खुद में उतर’र
खुद ने देखणौ।