काढ़ सूं कदतांई सूरज नै गाळयां / वासु आचार्य
लारलै कैई दिनां सूं
म्हे रोज
नैचै करण रो
जतन करता थका सौवू
क काल रै
ऊगतै सूरज सागै
कोई गाळी गळौंच-नीं करूला
दौरौ दौरौ सौवू
अधबळी नींद भी आवै
मनै सुपना घणा आवै
म्हारो भायलो सुणै
म्हारा सुपनां-रोज
कदै कदै बो
आपरी आँख्या मींच लै
(चष्में मांय ईया‘ई लखावै)
सायत् उफत‘र
सायत् गैरे सूं सुणै
म्हारा सुपनां
कीं ठा नीं लागै मनै
पण सुपना
म्हैं जरूर सुणाऊ
अर आ-म्हारी लाचारी है
जाणू हूँ
सुपना सुणनां भी
घणौ दौ रौ काम है
ई बगत मांय
‘दिन’ ‘उजाळो’
‘चैताणा’-जैड़ै फौफस
सबदा रै-भंभाड सूं डरूफरू
उडीकतो रैऊ-रात
म्हारो दिन-
रात है
म्हारी चैतणा विगसै
सुपनां मांय
म्हारै जीवण रो अधार
रैयग्या है सुपना
खुलै आँख अचाणक
खुलावणियौ सूरज‘ई है
अर म्हैं फैरू
उणीदी दसां मांय ई
काढ़ण लागू
सूरज नै गाळ्यां
भूल जाऊ-रात रो गाळयां
नीं काढ़णै रो
जतन कियौड़ौ नैचौ
लियौड़ौ संकल्प
सूरज तौड़दै-म्हारा सुपना
सुपना रै उजास नै
बदळ दे सूरज
आपरै अंधारै मांय
म्हैं सूरज नै-गाळ्यां
कद तांई काढतो रैसू ?
आ मनै भी ठा नीं है