भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निरस्त्र / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 18:51, 11 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय }} कुहरा था, सागर पर सन्नाटा था : पंछी चुप थे । म...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुहरा था,

सागर पर सन्नाटा था :

पंछी चुप थे ।

महाराशि से कटा हुआ

थोड़ा-सा जल

बन्दी हो

चट्टानों के बीच एक गढ़िया में

निश्चल था--

पारदर्श ।


प्रस्तर-चुम्बी

बहुरंगी

उद्भिज-समूह के बीच

मुझे सहसा दीखा

केंकड़ा एक :

आँखें ठण्डी

निष्प्रभ

निष्कौतूहल

निर्निमेष ।


जाने

मुझ में कौतुक जागा

या उस प्रसृत सन्नाटे में

अपना रहस्य यों खोल

आँख-भर तक लेने का साहस;

मैंने पूछा : क्यों जी,

यदि मैं तुम्हें बता दूँ

मैं करता हूँ प्यार किसी को--

तो चौंकोगे ?

ये ठण्डी आँखें झपकेंगी

औचक ?


उस उदासीन ने

सुना नहीं :

आँखों में

वही बुझा सूनापन जमा रहा ।

ठण्डे नीले लोहू में

दौड़ी नहीं

सनसनी कोई ।


पर अलक्ष्य गति से वह

कोई लीक पकड़

धीरे-धीरे

पत्थर की ओट

किसी कोटर में

सरक गया ।


यों मैं

अपने रहस्य के साथ

रह गया

सन्नाटे से घिरा

अकेला

अप्रस्तुत

अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र

निष्कवच,

वध्य ।