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शिखण्डिनी का प्रतिशोध-4 / राजेश्वर वशिष्ठ

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इतिहास का सबसे निष्ठुर प्रकरण है
स्त्री का प्रेम माँगने जाना
किसी पुरुष के पास
उसे याद दिलाना
कि वह समर्पण कर चुकी है
उसके पौरुष के समक्ष
और उसका संसार सीमित होकर रह गया है
मात्र उस पुरुष तक ही;
अम्बा भी गुज़र रही है इस निर्दय क्षण से
वह पहुँच गई है, राजा शाल्व के द्वार पर !

शाल्व बैठे हैं अपने मंत्रणाकक्ष में
भीष्म से मिली करारी हार
और शरीर पर लगे घावों का
उपचार कराने के लिए
चिकित्सकों और मन्त्रियों के बीच;
वहाँ उपस्थित होकर कहती है अम्बा -–
महाबाहो ! मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँ !

कुटिल मुस्कुराहट आती है शाल्व के चेहरे पर
अम्बा की आँखों में देखकर कहता है शाल्व --
सुन्दरी, अब मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं
तुम्हें छू चुका है भीष्म,
बलात् ले जा चुका है हस्तिनापुर के महलों में
मैं तुम्हें नहीं स्वीकार कर सकता पत्नी के रूप में !

कातर स्वर में बोलती है अम्बा –-
राजन, मैं पवित्र हूँ किसी कन्या की तरह
मेरे मन में बस आप ही आए थे
पति रूप में,
आपकी छवि सहेज कर मैं नहीं कर सकती थी
भीष्म के भ्राता से विवाह
मैं नहीं करना चाहती थी अपने प्रेम का अपमान
इसलिए लौट कर आई हूँ
अपने प्रियतम के निमित्त !

मैं भले ही पराजित और अपमानित क्षत्रिय हूँ
पर राजधर्म से बंधा हूँ
मेरी प्रजा मेरे मूल्यों का अनुकरण करती है
मैं तुम्हें त्याज्य मानता हूँ, अम्बा,
जाकर उस भीष्म से विवाह करो
जो किसी वर की तरह तुम्हें उठा ले गया था
स्वयंवर से बाँह पकड़ कर !

शाल्व हाथ जोड़ कर उठ खड़े हुए हैं
किसी अपरिचित की तरह
अम्बा को विदा देने के लिए !

सूर्य छिपा लेना चाहता था
अपना शर्म से लाल हुआ चेहरा,
इन आतताई क्षणों में अम्बा ठहर गई थी
पर्वत से उतरी किसी नदी की तरह
जो अब बहते हुए आ गई थी
किसी रेगिस्तान में
स्त्रियों का सम्मान और अस्मिता
शायद इसीलिए हमें आज भी मिलते हैं
इतिहास की पुस्तकों में
लुप्त हुई नदियों की तरह !

इतिहास में अम्बा का रुदन अलग नहीं था
यह रुदन एक स्त्री का भी नहीं था
यह स्त्री होने की नियति का रुदन था ।